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विश्लेषण

उस शख़्स को बदले में इस मुल्क ने क्या दिया? सिवाय एक मार्केट का नाम रखा “ग़फ़्फ़ार मार्केट” जहाँ चोरी का सामान मिलता है

जिस शख़्स ने इस मुल्क के लिए सबसे अधिक कुर्बानी दी. जिसने दुनिया की इतिहास में सबसे अधिक दिन जेल में गुजारा. मानवता एवं शांति के लिए संघर्ष करते हुये अपने जीवन का लगभग चार दशक जेल में इसलिए गुजार दिया ताकि ये दुनिया इंसानों को रहने लायक एक बेहतर जगह बन सके. जो शख़्स नोबेल पुरस्कार के लिए दो बार नामित हुआ था. जिस शख़्स का क़द अगर देखा जाए तो महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग, अब्राहम लिंकन के बराबर निकलेगा. जिस शख़्स के पूरे जीवनकाल में एक भी दाग़ न हो.

महात्मा गांधी से असहमति रखने वाले लोग मिल जाएँगे पर उस शख़्स का कभी कोई विरोधी नही हुआ. सम्पन्न परिवार से होने के बावजूद जिस शख़्स ने बेहद सादगी की तरह इंसानियत के लिए संघर्ष करते हुये ज़िंदगी जिया, ऐसी मिसाल दुनिया के इतिहास में देखने को कम मिलती है.

ऐसे ऐसे लोगों के नाम पर सड़क/विश्वविद्यालय/संस्थान/एयरपोर्ट/स्मारक मिल जाएगा जिन लोगों का देश के लिए रत्ती भर योगदान नहीं रहा है. पर खान ग़फ़्फ़ार खान जैसे महान लोगों के नाम पर इस मुल्क में कहीं कुछ भी नहीं मिलेगा. खान ग़फ़्फ़ार खान साहब की विरासत उनके ही खून से सींचे हुये मुल्क में ढूँढने पर नहीं मिलती.

जिसकी ईमानदारी ऐसी की बेईमानों के होश उड़ा दे. अगर रेल का टिकट सिर्फ बैठने का था तो वह इंसान बैठ कर ही आया चाहे ट्रेन आधी खाली क्यों ना हो. इसी ईमानदारी की वजह से वह गाँधी के सबसे करीब था. अपने धर्म का पक्का नेतृत्व खाली ज़बान से नहीं करता था, बल्कि उसे करके दिखाया करता था. उसने अपने जिंदगी का जंतर अपने चाहने वालों को तीन शब्दों में समझाया  अमल, यकीन और मोहब्बत. वैसे कहने को तो सिर्फ यह तीन शब्द हैं. लेकिन हर खुदाई खिदमतगार के लिए यह दिन की तीन खुराक थी. जो वह सुबह-दोपहर-शाम अपनी जिंदगी में लागू करते थे.

उसे सबसे ज्यादा दुःख अपने देश के बँटवारे का हुआ. वह आजाद भारत की पहली सुबह भी देश के बँटवारे के आँसू पोंछ रहा था लेकिन उसे अपने ही देश ने पराया कर दिया. वह ना चाहते हुए भी पलायन को मजबूर हुआ जहाँ उसको सिर्फ जेल की कोठरी नसीब हुई. वह वापस आया अपने मुल्क में घूमने, देखने की जिस आजादी के लिए वह लड़े, पिटे, जेल गए, किया वहाँ सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार आया. यहाँ रहने के बाद उन्हें निराशा हाथ लगी. वह कहते थे   कि अगर किसी समाज की जाँच करनी हो कि वह कितना विकसित समाज है तो सबसे पहले यह देखो कि वह अपनी महिलाओं को किस नज़र से देखते हैं. खैर,वह तो चले गये लेकिन उसकी दी गई शिक्षा आज भी हमारी किताबों में सड़ रही हैं. उन्होंने कहा था कि मैं अल्लाह का सेवक हूँ इसलिए मैं किसी से नफरत नहीं करता और मैं अपने अल्लाह की सेवा तो नहीं कर सकता परंतु उसके बनाए हुए हर जीव जंतु से मोहब्बत करके अपने अल्लाह को खुश और अपनी मरने की बाद की जिंदगी को बेहतर कर सकता हूँ.

6 फरवरी 1890 को जन्मे सलाम उसकी फकीरी पर जब उसका देहांत हुआ 20 जनवरी, 1988 को तो तीन देशों की सीमाओं पर लगी फोर्स नतमस्तक थी कि ऐसा कौन सा शख्स है जिसके चाहने वाले आज उसकी मौत पर मातम मनाने के लिए अपने चिर प्रतिद्वंद्वी के कंधे पर सर रखकर आँसू बहा रहे हैं.

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