छत्तीसगढ़ वर्ष 2000 में बनाया गया एक युवा राज्य है, लेकिन पुराणिक युग से विद्यमान एक समृद्ध और जीवंत सांस्कृतिक अस्तित्व है। इसकी सांस्कृतिक विरासत में एक सतत औरअखंड प्रवाह बिराजमान है। इसकी भूमि पर कई समुदायों, आदिवासियों और वनवासियों द्वारा निवास की गयी है, जिसमें आदिवासी आबादी के महत्वपूर्ण भाग शामिल है।
मेरा जन्म छत्तीसगढ़ के ही एक गांव में हुआ, जिसमें न केवल आदिवासी बल्कि अन्य लोगों का भी निवास है। मेरे गांव के किनारे से ही सबुज वन और प्रकृति की हराभरा समावेश भी है। छत्तीसगढ़के लोग स्पष्ट रूप से सरल, खुश, प्रगाढ़ उदारता से पूर्ण और परंपरागत रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं के अटूट विश्वासी होते हैं।
मैं छत्तीसगढ़ संस्कृति के इस पहलू को सबसे ज्यादा पसंद करता हूँ- हम इसके लिए जाने जाते हैं। हमारी सादगी, हमारे रिश्तेदारों और विस्तारित परिवारों के मूल्यबोध, परंपराओं और रीति-रिवाजों कोबहुमूल्य समझना, ‘देवता के रूप में प्रकृति’ की पूजा करना, और प्रकृति के साथ एक सिंबियोटिक संबंध में सहावस्थान करना- यह सब हमारी बहुमूल्य ईश्वरीय संपत्तियां और धरोहर हैं जिन पर हमेंगर्व है। ये हमारी पहचान हैं और ये हमारी ‘भावी पीढ़ी के लिए विरासत’ भी हैं।
छत्तीसगढ़ी लोग अपने परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों का बहुत आदर-सम्मान करते हैं। वे अपने सिर को बुजुर्गों के पैरों को छूते हुए झुकाते हैं, अतिथि को खाट या कुर्सी पर बिठाते हैं और उनके पैरोंको एक पारंपरिक पीतल/कांसा थाली पर रख कर साफ पानी में धो देते हैं। बाद में मेहमानों को घर में बना मीठा शीतल पेय पेश किया जाता है। घर आए अतिथि को स्थानीय भाषा में ‘पहुना’ कहाजाता है। छत्तीसगढ़ी लोग अपने पास मौजूद सभी भौतिक संसाधनों से पहुना की पूर्ण रूप से सेवा करते हैं।
ग्रामीण छत्तीसगढ़ी घर में भोजन करना वास्तव में एक अनोखा आनंद का अनुभव है। कांसा थाली और छोटे छोटे कटोरे बहुत चमकदार और साफ होते हैं; पीने का पानी क्रिस्टल क्लिअर, ताजा औरस्वाद में बहुत मीठा होता है। भोजन में एक अद्वितीय ताजगी और शुद्धता होती है- इसकी ऑर्गेनिक गुणवत्ता पर विश्वास नहीं किया जा सकता है जब तक कोई इसे देख न ले और भोजन न करले ।यह वह बात है जहां हम छत्तीसगढ़ी लोग दूसरों से अनूठा होते हैं। हम प्राकृतिक पर्यावरण का संपोषण करते हैं, जिसमें हम बस-वास करते हैं। हम अपने आस-पास के पानी, मृत्तिका और प्राकृतिकसंसाधनों की गुणवत्ता को बनाए रखते हैं, उनकी अवक्षयय नहीं करते।
सभी प्राकृतिक संसाधन हमारे लिए बेहद मूल्यवान हैं- वन, वन उत्पादन, खनिजों, जल निकायों, जंगली और घरेलू जानवरों, चट्टानों और पहाड़ियों, और जो भी धरती मां हमें प्रदान करती है। प्रकृतिहमारी मां है और हम जानते हैं कि अगर हम प्रकृति और पर्यावरण को नष्ट करते हैं तो हम अस्तित्व में नहीं रह सकते। पेड़-पौधे हमारे जीवन और भोजन के मूल्यवान संसाधन हैं। हम एक संधारणीय (sustainable) और सतत तरीके से, जंगल से भोजन और अन्य संसाधनों की संग्रहण करते हैं। घरेलु ईंधन के लिए केवल उन लकड़ी को एकत्र की जाती है जो शुष्क और मृत होती हैं। छत्तीसगढ़ी लोगईंधन की लकड़ी या घरेलू सामग्री बनाने के लिए जीवित पेड़ की कटाई नहीं करते हैं; बरसात के मौसम में तूफान से गिरे ऐसे पेड़ों की वे उपयोग करते हैं।
हम अपने घरों और खेती-भूमि के आस-पास बहुत सारे पेड़ और पौधे लगाते हैं ताकि जंगल संसाधनों की नियमित रूप से भरपाई की जा सके। पर्यावरण की ओर संवेदनशीलता हमारी घर की देन है, यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है। हम वृक्षों को ‘देव-रूप’ में सम्मानित करते हैं- वे धरती माता की रचनात्मक शक्तियां हैं। वे जीवन प्रदायिनी हैं। प्रत्येक छत्तीसगढ़ी गांव के केंद्र में एक देव-वृक्ष होता है- पीपल, साल या महुआ पेड़, जिसे विभिन्न सामाजिक और पारंपरिक कार्यों में पूजा की जाती है। ‘करम पेड़’ नामक और एक बहुत लोकप्रिय पेड़, ‘करम या करमा देवता’ के रूप में पूजा की जाती है।
करमदेवता प्रकृति के साथ लोगों को जोड़ते हैं। वह अच्छे प्रजनन क्षमता, ताकत और शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत माने जाते हैं। अच्छे कृषि उत्पादकता, अच्छी भूमि प्रजनन क्षमता और प्रकृति द्वारा प्राणियोंके उदार भरण-पोषण के लिए लोग उनकी पूजा करते हैं। पूरे राज्य में पारंपरिक उत्सव और उत्साह के साथ करमा-पूजा मनाई जाती है, जिसमें विभिन्न प्रकार के छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य और आत्मा-उद्दीपक करमा लोकगीत पेश किये जाते हैं। सामूहिक रूप से पुरुष और महिलाएं करमा उत्सव मनाने के लिए नृत्य करती हैं और गाती हैं। इसके अलावा, छत्तीसगढ़ के जन-जातीय लोगों द्वाराआदिवासी संस्कृति के प्रतिक के रूप में ‘बूढ़ादेव’ की भी पूजा की जाती है। ‘बूढ़ादेव’ को सरल, उदार-दिल वाले शिवजी के ‘भोलेनाथ’ स्वरूप माना जाता है।
‘साल या सरई’ (Sal) पेड़ छत्तीसगढ़ की राजकीय वृक्ष है। इससे जुड़ा ‘सरहुल नृत्य’ एक और ऐसा लोकनृत्य है जो उरांव जनजातियों द्वारा मनाये जानेवाला भव्य उत्सव के लिए प्रसिद्ध है । इसमें एकसाल पेड़ के चारों ओर, गीत बाद्य के ताल के साथ, बड़े उत्साह के साथ घूम घूम के नृत्य किया जाता है। ये लोग अपने देवता को ‘साल’ के पेड़ में निवास करने वाला मानते हैं और इस तरह ‘साल’ के पेड़ को बड़े लालित्य और भावुक उत्सव के साथ पूजा करते हैं।
प्रकृति के साथ लोगों के अनन्य संपर्क को महसूस किया जा सकता है, जब कोई छत्तीसगढ़ का ‘गेड़ी नृत्य’ दर्शन करता है। श्रावण महीने के हरेली अमावस से भादो पूर्णिमा के दौरान यह त्यौहारमनाया जाता है। मोहरी और तुडबुडी संगीत वाद्ययंत्रों की गूंजती आवाजें लोगों के दिल को अनूठा खुशी से भर देती हैं। खेती की पहले दौर खत्म होने के बाद, लोग दो बांस पर सवारी करके (जिसे ‘गेड़ी’ कहा जाता है) बड़े उत्साह से नृत्य करते हैं। इस दिन खेती के औजार जैसे हल-नांगर की पूजा की जाती है और लोग नारियल फोड़ने की खेल खेलते हैं।
छत्तीसगढ़ी लोग पूरे दिल से श्रावण के बारिश का स्वागत करते हैं। झूमता श्रावण में उमड़ते बादल और रिमझिम बारिश के बिच किसान जब अपना फसल की पैदावार करता है, तब स्वतः ही उसके ह्रदयसे गीत-संगीत के हिलोरियाँ उठ आते हैं । किंवदंती यह भी है कि कालिदास सरगुजा क्षेत्र के रामगढ़ पहाड़ियों पर श्रावण माह के घने कृष्णकाय बादलों को देखकर अभिभूत हुए थे और इस प्रकारउनकी कालातीत रचना- ‘मेघदुतम्’ की उत्पत्ति हुई।
छत्तीसगढ़ी लोग कई लोकप्रिय किंवदंतियों और लोक कथाओं का वर्णन करके त्योहारों, नृत्य और गायन के साथ जीवन का जश्न मनाते हैं। ‘लोरिक चंदौनी’ ऐसा एक लोक गीत है जिसे सामूहिक रूप सेविभिन्न ग्रामीण लोककथाओं का वर्णन करके गाया जाता है। त्यौहारों के दौरान मांदर और ताल की गूंजने वाली आवाज भी पूरे समुदाय को उत्साहित करती है। छत्तीसगढ़ी ‘पंडवानी’- पांडवों के बारे मेंअद्वितीय लोक-कथा वाचन, आज पद्मभूषण तीजन बाई जैसे महान कलाकारों के कारण विश्व प्रसिद्ध है।
छत्तीसगढ़ संस्कृति में प्रकृति और प्रकृति-तत्व हमेशा अनिवार्य रूपेण विद्यमान रहते हैं। ‘सूआ गीत’- जो तोतों के प्रयुक्त एक लोक-गीत कथा है (तोता को छत्तीसगढ़ी में ‘सुआ’ कहा जाता है) । सिरपर सजाए ‘पीढ़ा’ पर लकड़ी के तोते रखकर गोंड आदिवासी महिलाओं द्वारा ‘सूआ गीत’ गाया जाता है। प्रत्येक पक्ष में छः या आठ महिलाओं के दो समूह अत्यंत मनमोहक सुआ गीत बारी बारी से गातेहैं। आंखों के लिए यह वास्तव में एक दावत है। नागलोक में सुरक्षा के लिए तथा नाग-देवता के सम्मान में नागपंचमी के दौरान ‘नागमत गीत’ का गायन, एक और अनूठा परम्परा है।
कार्तिक एकादशीके शुभ दिन पर तुलसी की पूजा (पानी, तिलक और दीया से) और गायों की पूजा (पैरों को धोकर, सजाकर और उन्हें खिलाकर) भी की जाती है। ‘भोजली’ नामक एक अन्य प्रसिद्ध त्योहार में चावल, गेहूं,मूंग के छोटे पौधे एक टोकरी में उगाये जाते हैं और कई दिनों तक देव-रूप में पूजा किये जाते हैं। अंतिम दिन में महिलाएं और लड़कियां भोजली गीत गाती हैं ताकि ‘भोजली या मीतान’ बन जाएं (यानीदेवता के नाम जीवनभर का दोस्त बन जाएं) । तत उपरांत पूरा गांव हर्षोल्लास और दावत में डूब जाता है।
छत्तीसगढ़ी लोग अलग-अलग मौसमों का जश्न मनाते हैं, मौसमी लोकगीत गाते हैं, जैसे- फाग गीत (वसंत गीत), बारहमासी गीत और सवनाही गीत । इनमें से कई गीत कृषि प्रथाओं, विवाह, बाल-जन्म, जंगल-काम और त्यौहारों में लोगों के जीवन का हिस्सा हैं। जब महिलाओं के समूह बड़े सामंजस्य में एक साथ गाने गाते हैं, इसकी गूंज समीप जंगल से लहराता चला आता है । इसकी आवाज़वास्तव में आत्मा-स्पर्शी है। उनके साथ उनके मवेशियां, बकरियां, भेड़ और कुत्ते एक लय में चलते रहते हैं । इन जानवरों के गर्दन में एक छोटी धातु या लकड़ी की घंटी बंधी होती है।
ये घंटीयां भी एकअद्वितीय और सामंजस्यपूर्ण ‘प्रकृति के स्वाभाविक ध्वनि’ बनाती हैं। शाम के दौरान महिलाओं के गीत और मवेशीयों के घंटी-ध्वनि एक साथ मिश्रित होकर एक मनमोहक और कलापूर्णकोरस उत्पन्न करते हैं, जो पूरे गांव को चित्ताकर्षक भाव-दशा में डुबो देती हैं। यहाँ गायन, नृत्य, उत्सव, लोग और प्रकृति…सभी एक साथ एकक सद्भाव से मिलते हैं, एक अनन्य सामूहिकतथा सामुदायिक हर्ष-विनोद के लिए और यहाँ जीवन का जश्न मनाया जाता है इनके सभी रंगों में।
छत्तीसगढ़ के ये अद्वितीय सांस्कृतिक पहलू लोगों को एक दूसरे से एकत्व और ममत्व की भावना से जोड़ते हैं और एक सार्वभौमिक सामंजस्य में प्रकृति के साथ विशेष बंधन निर्मित करते हैं।अविश्वसनीय रूप से सरल छत्तीसगढ़ी लोगों को युगों-पुरातन लोकोक्ति का प्रगाढ़ एहसास है: ‘प्रगति मुलम् प्रकृति यानी प्रकृति समृद्धि का स्रोत है। संभवतः इस कारण, इन्हें ‘छत्तीसगढ़िया’ के नामसे या सबलेबढ़ि पुकारा जाता है- यानी ‘छत्तीसगढ़ी लोग, सबसे बेहतरीन’।
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