भारतीय समाज में वर्ण और जाति के आधार पर शोषण तथा अतिक्रमण हज़ारों सालों से होता चला आ रहा है. वर्ण आधारित जातिवादी व्यवस्था आज जो हम देख रहे हैं इसकी शुरुआत का सटीक अनुमान संभव नहीं है. विद्वानों का मानना है कि वैदिक काल से ही समाज किसी ना किसी रूप में वर्ण-व्यवस्था पर आधारित रहा है. प्रचलित मान्यताओं के आधार पर चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र) में विभाजित समाज की स्थापना का श्रेय आर्यों को जाता है. सर्प्रथम आर्यों ने ही समाज के एकीकरण के नाम पर वर्ण आधारित जातिगत सोपान की शुरुआत की थी. अपने आपको सर्वश्रेष्ठ संस्कृति मानकर आर्यों ने ख़ुद को सर्वोपरि (ब्राह्मण) बना लिया तथा सांस्कृतिक रूप से अलग बहुसंख्यक लोगों को शुद्र की संज्ञा दे दी. अर्थात भारत में रह रहे मूल निवासियों को ही आर्यों ने समाज के सबसे पिछले पायदान पर रख दिया.
सभ्यता और संस्कृति के नाम पर बनाए गए वर्ण व्यवस्था में सबसे पिछले पायदान पर रखे गए लोगों के साथ तब से लेकर अब तक शोषण, अतिक्रमण और अत्याचार होता चला आ रहा है. आर्यों ने शुरु से ही समाज के एकीकरण के नाम पर वर्ण व्यवस्था का भरपूर दोहन किया है. आज भी सामाजिक अभिजात वर्ग “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” के नाम पर अपना खेल सतत जारी किए हुए हैं.
वर्ण व्यवस्था से ही जाति व्यवस्था का निर्माण किया गया, जिसकी कमान ब्राह्मणों ने अपने पास रखा. इसी क्रम में निचले पायदान पर उनको रखा जिनके पास ना तो खाने के लिए सही खाना, पीने को स्वच्छ पानी, तथा रहने को घर, और ना ही किसी भी तरह का सामाजिक अधिकार था. असल में समाज के वर्ग व्यवस्था को बचाए रखने के लिए शासक वर्ग द्वारा शोषित वर्गो पे शोषण को बकरार रखने के लिए ही लगातार दलितों पे अत्याचार करते आ रहे हैं.
दलितों पर हो रहे अत्याचार के विरूद्ध कई महापुरुषों ने संघर्ष किया है, उनमें से आधुनिक भारत में बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का नाम अग्रणीय है. बाबा साहब का जन्म उस वक़्त के अछूत जाति (महार) में 14 अप्रैल 1891 को हुआ था. बचपन से ही शिक्षा के प्रति उनके लगन के कारण छुआछूत जैसी सामाजिक बाधाओं से संघर्ष करते हुए उन्होंने पी. एच. डी सहित कुल 26 उपाधियाँ प्राप्ति की.
बहुमुखी प्रतिभा के धनी बाबा साहब ने छूआछूत एवं जात-पात सहित अन्य सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध कई आंदोलन किए. उनका मानना था कि शिक्षा प्राप्त कर दलित मनुवादियों के षड्यंत्र को समझ कर अपना अधिकार पाने में सफल हो सकते हैं. आगे चलकर बाबा साहब को उनकी योग्यता और क्षमता के आधार पर भारतीय संविधान के ड्राफ्ट समिति का अध्यक्ष बनाया गया. संविधान निर्माण के दौरान ही उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि मनुवादी लोग देश की स्वतंत्रता के पश्चात भी अपनी मनुवादी व्यवस्था क़ायम रखना चाहेंगे अतः उन्होंने दलितों को विशेष अधिकार देने का काम किया जिससे उनको समाज मे ससम्मान जीने का अधिकार मिल जाए! दलितों को संसद तथा विधानसभाओं, स्थानीय संस्थाओं, एवं शिक्षण संस्थानों में विशेष प्रावधान कर प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद15 के अनुसार राज्य किसी नगरिक के विरूध धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में पक्षपात नहीं करेगा. अनुच्छेद17 छुआछूत का अंत करती है, अनुच्छेद 21 जीवन का अधिकार देती है. अनुच्छेद 23 और 24 शोषण के विरूद्ध अधिकार देती है. इसी प्रकार कई ऐसे अधिकार संविधान हमें देती है जिस आधार पर स्वतंत्र भारत मे किसी को भी जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग, क्षेत्र या किसी अन्य व्यक्तिगत पहचान के आधार पर किसी के साथ पक्षपात, शोषण या अत्याचार नहीं किया जा सकता.
इन सबके बावजूद जब दलितों पर अत्याचार खत्म नहीं हुए तो11 सितंबर 1989 को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनिय, 1989, पारित हुआ. इस एक्ट का उद्देश्य इन जातियों के साथ अपराध करने वाले को दंडित करना है. जिसमें तुरंत गिरफ़्तारी से लेकर विशेष अदालत द्वारा शीघ्र सजा का प्रावधान है.
यह कानून इस वर्ग के ससम्मान जीवन यापन तथा उनके खिलाफ हो रहे शोषण और अत्याचार को रोकने के लिए है. इस कानून के अंतर्गत सिर्फ़ वही अपराध आते हैं जिसे एक सभ्य समाज कभी सहन नहीं कर सकती.
जैसे जबरन मल, मूत्र इत्यादि खिलाना,सामाजिक बहिष्कार करना, इनके सदस्यों को व्यापार और रोजग़ार करने से वंचित करना, शारीरिक चोट पहुंचाना, घर के आस-पास या परिवार में उन्हें अपमानित करने या क्षुब्ध करने की नीयत से कूड़ा-करकट, मल या मृत पशु का शव फेंक देना, बलपूर्वक कपड़ा उतारना या उसे नंगा करके या उसके चेहरें पर पेंट पोत कर सार्वजनिक रूप में घुमाना, गैर कानूनी ढंग से खेती काट लेना, खेती जोत लेना या उसकी भूमि पर कब्जा कर लेना, भीख मांगनें के लिए मजबूर करना या बंधुआ मजदूर के रूप में रहने को विवश करना, मतदान नहीं देने देना या किसी खास उम्मीदवार को मतदान के लिए मजबूर करना, महिला का उसके इच्छा के विरूद्ध या बलपूर्वक यौन शोषण करना, उपयोग में लाए जाने वालें जलाशय या जल स्त्रोतों को गंदा कर देना अथवा अनुपयोगी बना देना, सार्वजनिक स्थानों पर जाने से रोकना, अपना मकान अथवा निवास स्थान छोड़नें पर मजबूर करना इत्यादि.
अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 के संवंध में यह कहा गया कि इसका दुरुपयोग होता है, अतः इसमें कुछ बदलाव हो. इसी दौरान कुछ मनुवादियों ने यह भी मांग करना प्रारंभ कर दिया कि दलितों को मिलने वाला हर प्रकार के आरक्षण को समाप्त कर दिया जाय.
इस पर हम यह मानते हैं कि आज भी जब अनुसूचित जाति और जनजाति पे अत्याचार इसी आधार पर होते हैं कि वो दलित हैं तो उनसे संबंधित कानून पर पुनर्विचार क्यों? जहाँ तक कानून के दुरुपयोग की बात है तो आज पूँजीवाद तथा मनुवाद के इस युग में किस क़ानून का दुरुपयोग नहीं हो रहा है, तो क्या सब पर पुनर्विचार संभव है?
हम आरक्षण का समर्थन करते हैं और आरक्षण के विरोधियों से यह कहना चाहते हैं कि अगर आरक्षण से इतनी नफरत है तो बराबर से बांट दो ना अपनी ज़मीन, और करो ना आपस में एक दूसरे के घर शादी. ध्वस्त कर दो ना मनुवादी मानसिकता. कर दो ना देश में समान शिक्षा व्यवस्था लागू. स्वीकार कर लो ना हमें अपने साथ व्यापार और निजी कंपनियों के रोजग़ार में, और आने दो ना हमें संख्या के आधार पर हर जगह दे दो हमें वो सामाजिक सम्मान और अधिकार जो हज़ारों सालों से भोगते आए हो.
हम सत्तासीन मठाधीसों से यह प्रश्न पूछना चाहते हैं कि क्यों नहीं देते दलितों को सम्मान? क्या वो भारत माता की समान संतान नहीं? क्या उनका भारत निर्माण में तुम से ज़्यादा योगदान नहीं? इसमें दलितों का क्या कसूर है कि मनुवादियों ने उन्हें शुद्र बना दिया? आख़िर दलित भी सभी की तरह भारत के समान नागरिक हैं. कोई किसी भी जाति में पैदा लिया हो, हम जातिवादी व्यवस्था में कतई नहीं मानते तथा जाति, धर्म या किसी भी प्रकार के पहचान पर समाज की स्थापना और राजनीति की कड़ी शब्दों में निंदा करते है.
एक और सवाल जो पूछा जाता है कि जब हर जाति में ग़रीब है तो सबको समान आरक्षण क्यों नहीं, ग़रीबी जाति देखकर तो नहीं आती. हाँ इस बात में सत्यता है कि गरीबी जाती देखकर नहीं आती, पर आजतक दलितों पर अत्याचार जाति देख कर ही हो रहा है और आरक्षण का आधार सिर्फ आर्थिक कतई नहीं है. अनुसूचित जाति एंव जनजाति पर सदियों से हो रहा शोषण और समाज से उन्हें अलग थलग कर देने की व्यवस्थाओं को ख़त्म कर उनकों मुख्यधारा में लाने के लिए सार्थक प्रयास आरक्षण है ना को कोई कृपा है.
हमारे देश की यह सत्यता है कि लोकतांत्रिक ढांचे के इतने साल बाद भी हमारा समाज जातीय आधार पर बंटा हुआ है. और जब तक समाज में किसी भी तरह का ग़ैर बराबरी रहेगा, वो लोकतांत्रिक समाज की स्थापना और राष्ट्रनिर्माण में सबसे बड़ा बाधा बना रहेगा. जब तक समाज का हर तबक़ा ख़ुद को राष्ट्र का समान हिस्सेदार ना मानने लगे, बाबा साहेब के सपनों का राष्ट्र संभव नहीं.
लिखित रूप में हमारा संविधान दुनियाँ का सबसे अच्छा संविधान है, इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी उनकी है जिनको वोट देकर हमने अपना भविष्य गिरवी रखा हुआ है. हमें अगर समतामूलक समाज चाहिए तो सर्वप्रथम हमें अपना संविधान बचाना चाहिए, धर्म एवं हमारे सारे अधिकार स्वतः ही बच जाएंगे. इस संदर्भ में बाबा साहब ने कहा था कि हम सबसे अच्छा संविधान लिख सकते हैं, लेकिन उसकी कामयाबी आख़िरकार उन लोगों पर निर्भर करेगी, जो देश को चलाएंगे.
आरक्षण के नाम पे आजकल जो चल रहा मनुवादियों का खेल है इसे हम अच्छे से समझते हैं, हमारी आवादी 85 प्रतिशत और हमें 49.5 प्रतिशत में समेटे रखने और खुद 15 प्रतिशत होकर 50.5 प्रतिशत हथियाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है. समाज के जातीय विविधताओं को हम स्वीकार करते हैं परन्तु ये जो मनुवादी आर्यों के तर्ज़ पर एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर ग़रीब को और ग़रीब एवं अमीर को और अमीर बनाने का खेल खेला जा रहा है जनता अब इसे अच्छे से समझने लगी है.
सदियों से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक रूप से उपेक्षित तथा वंचित लोगों को उनका अधिकार मिलता रहे इसमें किसी को क्या समस्या हो सकती है, जिन्हें भी आरक्षण से समस्या है उनके लिए बस यही कहना चाहूँगा की देश अब ग़ुलाम नहीं और ना कोई हमारा राजा है. हम अपने अधिकारों तथा संविधान की रक्षा के लिए सतत संघर्ष करते रहेंगे.
मैं अपनी बात फैज अहमद फैज के इस नज्म के साथ ख़त्म करता हूँ.
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे.
जो दिल पे गुजरती है रक़म करते रहेंगे.
इक तर्ज-ए-गाफुल है सो वो उनको मुबारक इक .
इक अर्ज-ए- तमन्ना है सो हम करते रहेंगे.
लेखक: शाहनवाज़ भारतीय, पी.एच.डी,
जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली.
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