इस देश में स्थायी अमन और शांति के लिए जातीय संघर्ष का तेज होना बहुत जरूरी है। पुरोहिताई, जातीय उच्चता और सामंती ऐंठन तथा पिछड़ी जातियों के बीच के आंतरिक अंतर्विरोधों को तेज करना बहुत जरूरी है। ब्राह्मणवाद या मनुवादी सोच से आजादी बिना और आजादी के लिए संघर्ष की इस प्रक्रिया से गुजरे बिना यह संभव ही नहीं है। इसीलिए जो भी जाति विरोधी आंदोलन का हिस्सा हैं उन्हें इस अंतर्विरोध को तेज करने की दिशा में काम करने की जरूरत है। हजारों सालों की जाति व्यवस्था और पंडावाद को जितनी चुनौती आज के दौर में मिल रही है उतनी किसी भी दौर में नहीं मिली।
जब से पिछडी जातियाँ को विश्वविद्यालयों में प्रवेश मिला है और उन्होंने शिक्षा एवं उच्च शिक्षा हासिल की है इनका सवर्णवादी जातीय वर्चस्व दरक रहा है। उनकी कब्जेदारी को पिछड़ी जातियों से खतरा पैदा हो गया है। मंडल के समय में पैदा हुई ये पहली पीढियां अपने पूर्वजों की गलतियों की मीमांसा करते हुए उनके संघर्षों को नया आयाम दे रही हैं। जिन संस्थानों में जाति का नाम लेना गुनाह था ये नई पीढी आज वहां खुल कर जाति को विमर्श के केन्द्र में लाकर उस पर चर्चा कर रही हैं। सवर्णवादी वर्चस्व का खात्मा तभी संभव है जब हर कोने से इन्हें उखाड़ फेंकने की योजना को लागू किया जाएगा और उखाड़ फेंकने का अर्थ कोई हिंसात्मक प्रतिरोध और हिंसात्मक कार्रवाई नही बल्कि सभी स्तरों पर बहुजनों के समानुपातिक प्रतिनिधित्व द्वारा अनुचित ब्राह्मणवादी एकक्षत्र वर्चस्व को खत्म कर देना भर है।
भारतीय समाज में जन्म के साथ ही ऊंच-नीच, अगड़ा और पिछड़े के संस्कार दिये जाते हैं और परिवार और जातीय टोले जातिवादी मानसिकता तैयार करने वाले ट्रेनिंग कैंप हैं। यहीं से तैयार होती है ब्राह्मणवादियों की वह आभासी सोशल कैपिटल जो सवर्णें की कुछ जातियों के वर्चस्व को कायम करने में हर स्तर पर उनके अनुकूल सहयोगी माहौल तैयार करती है। देश की आधी से अधिक आबादी वाले ओबीसी वर्ग को इसी आभासी सोशल कैपिटल के भ्रम जाल को भेदना होगा।
विश्वविद्यालयों में आने के बाद जिस तरह दलित और पिछड़ी जातियों में चेतना का संचार हो रहा है उसका टकराव इसी सवर्णवादी जातीय वर्चस्व से हो रहा है। उसे तरह तरह की प्रताड़ना और एकेडमिक भेदभाव इसीलिए झेलने पड़ रहे हैं। रोहित वेमुला तथा उसके बाद खड़े हुए आंदोलन इसका सबसे उत्तम उदाहरण हैं। इसलिए ब्राह्मणवाद और मनुवाद के खिलाफ पैदा हुई चेतना से जो नारे मौजूदा दौर में बुलंद हो रहे हैं वो जातीय संघर्ष की ही एक जमीन तैयार कर रहे हैं। लेकिन ब्राह्मणवादी राजनीतिक पार्टियाँ इस संकेत को समझ रही हैं इसलिए समय समय पर इन दलित पिछड़ी जातियों को लुभाने के लिए लिबरल और लुभावनी नीतियों को बना कर इनकी दिशा को कुंद कर रही हैं। कभी कुछ फेलोशिप देकर, कहीं दलितों की फीस माफ करके, कहीं अंबेडकर के नाम पर चेयर रख कर, तो कभी सरकारी योजनाओं में चंद छूट देकर, यह सब उस तेज हो रहे जातीय अंतर्विरोध को कुंद करने की साजिश मात्र है। एक प्रकार से यह ब्राह्मणवादी सुधार हैं जो बहुजन क्रान्ति की तैयार हो रही जमीन को कमजोर करने और क्रान्ति को लंबित करने के ब्राह्मणवाद के अंतिम प्रयास हैं। भारतीय जातियों का आपसी वर्गीय उप विभाजन जितना बनेगा हिंदूवादी बहुसंख्यकवाद को भी उतनी ही चुनौती मिलेगी।
इस संदर्भ में पिछले साल यूपी विधानसभा के चुनाव के कुछ सामाजिक जातीय प्रयोगों को देखा जा सकता है। भाजपा ने नॉन यादव और नॉन जाटव एक प्रयोग उत्तर प्रदेश में किया जिसका उसे फायदा भी मिला लेकिन इस प्रयोग का एक खतरनाक परिणाम यह होगा कि इससे आतंकी संघ के हिंदूवाद का सपना चकनाचूर होगा। क्योंकि ये दो जातियां तो उसके हिंदूवाद के फोल्डर से बाहर हो गई और इनके खिलाफ अन्य पिछड़ी जातियों में जो घृणा आरएसएस ने बोयी वो तो उसके हिदुत्व की एकता के खिलाफ साबित होगी। अन्य पिछड़ी जातियों का वोट लेने के चक्कर में उन्हें कट्टर हिंदू बनाने की योजना भले संघ बनाए लेकिन यह प्रयोग एक दिन उसके गले की फांस बन जाएगा। इसलिए जाति जनगणना का जो सवाल है वह इस जातीय संघर्ष को तीव्र करने और सवर्णवादी वर्चस्व को चकनाचूर करने का सबसे बड़ा हथियार है। शायद यही कारण है कि बड़ी बड़ी पार्टियों को जाति जनगणना के भीषण परिणामों से भय लग रहा है। लेकिन अब यह आवाज दबने वाली भी नहीं है।
About Author: मुलायम सिंह, रिसर्च स्कॉलर, जेएनयू नई दिल्ली.
Donation Appeal
द क्रिटिकल मिरर से जुडने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. ये आपकी और हमारी आवाज है. इस आवाज़ को बुलंद रखने के लिए हमारी मदद करे: