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विश्लेषण

हिंदुत्व की राजनीति और प्रेमचंद

आजादी के पचास साल पूरा होने के बाद डाॅ. अवधेश प्रधान ने यह लेख लिखा था, जिसे हमने समकालीन जनमत, अप्रैल-जून 1998 में प्रकाशित किया था। राजनीतिक स्वार्थ के तहत पली-बढ़ी हिंदू सांप्रदायिकता का किस तरह प्रेमचंद ने अपने समय में वैचारिक मुकाबला किया, इस लेख में हम देख सकते हैं। 1998 में अवधेश प्रधान ने हिंदू फासीवाद के जिस गर्त में देश के धकेले जाने की चेतावनी दी थी, आज देश और लोकतंत्र उसमें डूबता जा रहा है। इसे 2016 में हमने पुनर्प्रकाशित किया था।

हिंदुत्व की राजनीति का सूत्रपात स्वाधीनता संग्राम के दौर में ही हो गया था। 1875 में आर्यसमाज, 1900 में भारत धर्म महामंडल, 1915 में हिंदू महासभा और 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के क्रम-विकास पर ध्यान दें तो पाएंगे कि आर्यसमाज और सनातन धर्म की परस्पर-विरोधी धाराएं क्रमशः एक दूसरे के निकट आती गईं। आक्रामक हिंदू अस्मिता की जमीन पर इनके कदम जैसे-जैसे बढ़ते गए, वैसे-वैसे इनके बीच की दूरी कम होती गई। वैसे तो मतभेद आर्यसमाज और सनातन धर्म के ही बीच नहीं बल्कि स्वयं आर्यसमाज के भीतर दो गुटों के बीच भी था। शाकाहार बनाम मांसाहार, संस्कृत बनाम अंग्रेजी शिक्षा के मुद्दे पर आर्यसमाज 1893 में ही दो गुटों में बंट गया था। एक ओर था हंसराज और लाजपत राय के नेतृत्व वाला ‘काॅलेज गुट’ और दूसरी ओर था लेख राम और मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानंद) के नेतृत्व वाला ‘गुरुकुल गुट’। अनेक मतभेदों के बावजूद दोनों की दिशा एक थी, हिंदुत्व का उद्घोष और मुसलमानों का विरोध दोनों में समान था। गुरुकुल गुट के लेखराम ने मुसलमानों के अहमदिया संप्रदाय की कटु निंदा की जिसकी प्रतिक्रिया 1897 में उनकी हत्या में हुई। यह भी एक अजीब संयोग है कि गुरुकुल गुट के दूसरे प्रमुख नेता मुंशीराम यानी स्वामी श्रद्धानंद भी 1926 में सांप्रदायिक प्रतिक्रिया के ही हाथों मारे गए। दूसरी तरफ काॅलेज गुट के लाला लाजपत राय के सहयोगी लाला लालचंद ने हिंदुओं की कुछ खास मांगों और समस्याओं को लेकर कांग्रेस की आलोचना की, कांग्रेस के स्थान पर हिंदूूसभाओं की कांग्रेसी प्रेस के स्थान पर हिंदू प्रेस की, और एक हिंदू रक्षाकोष आदि की आवश्यकता बतलाई और 1909 में अपने लेख एक लेख में हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा का पूर्वाभास दे दिया (सुमित सरकार, आधुनिक भारत, पृ. 98)। आर्यसमाजी सुधारवाद और सनातनी रूढ़िवाद के गठजोड़ की तार्किक परिणति लाजपत राय और मदनमोहन मालवीय की राजनीतिक गुटबंदी में हुई। जब 1926 के चुनावों में दोनों ने मिलकर स्वराज पार्टी के खिलाफ हल्ला बोल दिया।

प्रेमचंद आर्यसमाज के सदस्य रह चुके थे लेकिन धीरे-धीरे बोल्शेविक उसूलों के कायल होते गए। उनके समूचे साहित्य में मुस्लिम-विरोध की गंध तक नहीं, अलबत्ता सांप्रदायिक राजनीति और उग्र हिंदूवाद की आलोचना अवश्य है। स्वाधीनता संग्राम की सफलता के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता को वे एक अनिवार्य शर्त के बतौर पेश करते हैं।

1921 में ‘वर्तमान आंदोलन के रास्ते में रुकावटें’ शीर्षक लेख में इसके महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा था- ‘‘हिंदू-मुस्लिम एकता का मसला निहायत नाजुक है और अगर पूरी एहतियात और धीरज और जब्त और रवादारी से काम न लिया गया तो यह स्वराज्य के आंदोलन के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट साबित होगा।’ (विविध प्रसंग-29, पृ.33)। यह मसला न केवल अतीत में स्वराज्य के आंदोलन के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट साबित हुआ बल्कि वर्तमान में हमारे राष्ट्र-निर्माण के रास्ते में भी सबसे बड़ी रुकावट साबित हो रहा है। उन्हें असहयोग और खिलाफत आंदोलन की एकता से बड़ी उम्मीदें थीं इसीलिए उन्होंने लेख के अंत में यह अपील की- ‘‘हिंदुओं के लिए मुसलमानों के हृदय परिवर्तन की इससे अच्छी कोई सूरत नहीं है कि वह यथाशक्ति खिलाफत की सहायता करें और आपस में ऐसी एकता की बुनियाद डालें जो हमेशा कायम रहे।’’ (वही, पृ. 34)

मगर सब उम्मीदें और अपीलें बेकार हो गईं जब चौरी-चौरा कांड के बाद आंदोलन वापस लेते ही सांप्रदायिक दंगों का लंबा सिलसिला जारी हो गया। 1922 में ही मुलतान में दंगे हुए। 1923 में मुहर्रम के मौके पर बंगाल और पंजाब में बड़े भयानक दंगे हुए। 1924 में दिल्ली, गुलबर्गा, नागपुर, जबलपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, शाहजहांपुर में दंगे हुए। इनमें सबसे भयानक था पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत का कोहाट हिंदू विरोधी दंगा जिसमें 9-10 सितंबर 1924 को 155 लोग मारे गए। 1926 में अप्रैल और जुलाई के बीच में तीन बार दंगे हुए जिनमें 38 लोग मारे गए। 1926 में ही ढाका, पटना, रावलपिंडी और दिल्ली में दंगे हुए। 1927 में सबसे भयानक दंगा 3 से 7 मई के बीच लाहौर में हुआ। सबसे बुरी हालत संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) की थी जहां 1923 से 1927 के बीच 91 दंगे हुए।

इस बीच दोनों समुदायों में सांप्रदायिक विचारों और संगठनों का जबर्दस्त उभार आया। आर्यसमाजियों के हिंदू संगठन और शुद्धि आंदोलन के जवाब में मुस्लिम सांप्रदायिकता ने तबलीग (प्रचार) और तंजीम (संगठन) का अभियान चलाया। मोपलों ने जिन हिंदुओं को जबरन मुसलमान बना दिया और उन्हें फिर से ‘शुद्ध’ करके हिंदू बनाने का आंदोलन चालू हुआ जिसका विस्तार स्वामी श्रद्धानंद ने पश्चिमी संयुक्त प्रांत में किया। हिंदू महासभा ने 1923 के बनारस अधिवेशन में शुद्धि का कार्यक्रम स्वीकार किया और हिंदू आत्मरक्षा दलों के निर्माण का आवाहन किया। आर्यसमाज और सनातन धर्म के पुराने मतभेद रूढ़िवाद की जिस जमीन पर हल किए जा रहे थे उसका खुलासा करते हुए सुमित सरकार ने लिखा है- ‘‘यह अधिवेशन आर्यसमाजी सुधारवादियों एवं सनातन धर्म, सभी के रूढ़िवादियों के गंठजोड़ से बने एक साझे हिंदू सांप्रदायिक मोर्चे का प्रतिनिधित्व करता था और सदा की भांति इसके अध्यक्ष मालवीय थे।’’ (आधुनिक भारत, पृ. 363)। यही वह दौर है जब 1925 में नागपुर में केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।

जब हिंदू कट्टरपंथी मलकाना राजपूतों की शुद्धि को लेकर विजय गर्व से फूले फूले फिर रहे थे और हिंदू महासभा का बनारस अधिवेशन शुद्धि का कार्यक्रम स्वीकार कर रहा था उसी समय अप्रैल 1923 को उन्होंने ‘जमाना’ के संपादक मुंशी दयानरायन निगम को लिखा- ‘‘मलकाना शुद्धि पर एक मुख्तसर मजमून लिख रहा हूं। मुझे इस तहरीक से सख्त इख्तिलाफ है।…आर्य समाज वाले भिन्नाएंगे, लेकिन मुझे उम्मीद है, आप ‘जमाना’ में इस मजमून को जगह देंगे।’’ (कलम का सिपाही, पृ. 259)। यह लेख कितना विस्फोटक था इसका एक सबूत तो यही है कि निगम साहब को यह लेख तत्काल छापने की हिम्मत न हुई। जब प्रेमचंद ने याद दिलाई तब अप्रैल 23 का लिखा लेख नौ महीने बाद फरवरी 24 में छापा। ‘‘उसका छपना था कि चारों तरफ तहलका मच गया। मुसलमानों ने उसको हाथों हाथ लिया और हिंदू गुस्से से दांत किटकिटाने लगे।’’ (कलम का सिपाही, पृ. 260)

चारों ओर जो हिंदुत्व की राजनीतिक फसल लहलहा रही थी वह प्रेमचंद की दृष्टि में मनुष्यता का अकाल था। प्रेमचंद ने लक्षित किया कि मुसलमानों के बीच से जिस तरह एकता के एक से एक समर्थक नेता उभर कर आए उस तरह हिंदुओं के बीच से नहीं आए। हिंदुओं की संकीर्णता पर बिफरते हुए प्रेमचंद ने लिखा, ‘‘हिंदू कौम कभी अपनी राजनीतिक उदारता के लिए मशहूर नहीं रही और इस मौके पर तो उसने जितनी संकीर्णता का परिचय दिया है उससे मजबूरन इस नतीजे पर पहुंचना पड़ता है कि इस कौम का राजनीतिक दीवाला हो गया वर्ना कोई वजह न थी कि सारी हिंदू कौम सामूहिक रूप से कुछ थोड़े से उन्मादग्रस्त तथाकथित देशभक्तों की प्रेरणा से इस तरह पागल हो जाती। हम कहते हैं कि अगर हिंदुओं में एक भी किचलू, मुहम्मद अली या शौकत अली होता तो हिंदू संगठन और शुद्धि की इतनी गर्मबाजारी न होती और इन हंगामों में काफी कमी हो जाती जो इस वैमनस्य के कारण दिखाई देते हैं।’’ (विविध प्रसंग-2, पृ.351-52)। एक ओर अली बंधु हैं- मुहम्मद अली और शौकत अली- जिन्हें प्रेचमंद रामलखन की जोड़ी कहते हैं- जिन्होंने अपनी एकता की तड़प और कोशिशों के बूते देशप्रेमी हिंदुओं के भी हृदय में घर कर लिया है, दूसरी ओर मलकाना राजपूतों की शुद्धि पर बगलें बजाने वाले! हिंदुओं में एक भी नेता नहीं ‘‘जो हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए जी-जान से काम कर रहा हो, जो उसे हिंदुस्तान की सबसे महत्वपूर्ण समस्या समझता हो, जो स्वराज्य के लिए एकता को बुनियादी शर्त समझता हो। कौम का यह दर्द, यह टीस, यह तड़प आज हिंदुओं में कहीं दिखाई नहीं देती। दस-पांच हजार मलकानों को शुद्ध करके लोग फूले नहीं समाते मानो अपने लक्ष्य पर पहुंच गए; अब स्वराज्य हासिल हो गया।’’ (विविध प्रसंग-2, पृ. 352)

1922 से 1927 के बीच के दंगों के मुख्य दो ही मुद्दे थे- मुसलमानों की मांग थी कि नमाज के वक्त मस्जिदों के आगे बाजे न बजाए जाएं, हिंदुओं की मांग थी कि गोकुशी बंद हो। मुसलमानों की मांग का समर्थन करते हुए प्रेमचंद ने लिखा, ‘‘हिंदुओं के त्यौहारों और जुलूसों के मौके पर अक्सर मुसलमानों की तरफ से यह तकाजा होता है कि मस्जिदों के सामने नमाज के मौके पर बाजा और शादियाने न बजाए जाएं। यह बहुत ही स्वाभाविक मांग है। शोरगुल से निश्चय ही उपासना में विघ्न पड़ता है और अगर मुसलमान इस शोरगुल को बंद करने पर जोर देते हैं तो हिंदुओं को चाहिए कि वह उनकी दिलजोई करें। यह तो हिंदुओं का उनके आग्रह के बिना भी, भगवान के प्रति सम्मान की दृष्टि से ही कर्तव्य है, न कि जब कोई उन्हें उनका कर्तव्य याद दिलाए तो उससे लड़ने के लिए तैयार हो जाएं।’’ (विविध प्रसंग-2, पृ. 353)। हिंदू संगठनों ने जिस गोरक्षा का हौव्वा खड़ा किया उसके बारे में प्रेमचंद खुद हिंदू नेताओं से प्रश्न करते हैं कि हिंदू राजाओं और रईसों ने गोरक्षा के लिए अब तक क्या किया है, उन्होंने कितनी गोचर भूमि छोड़ी है, गायों के चारे और रखरखाव का क्या प्रबंध किया है? गाय पवित्र है लेकिन क्या वह मनुष्य से भी अधिक महत्वपूर्ण है? क्या गाय की रक्षा के नाम पर मनुष्यों के जान लेना धर्म है? उन्होंने एक विवेकशील मानवतावादी साहित्यकार की भूमिका में खड़े होकर लिखा, ‘‘अगर हिंदुओं को अभी यह जानना बाकी है कि इन्सान किसी हैवान से कहीं ज्यादा पवित्र प्राणी है, चाहे वह गोपाल की गाय हो ईसा का गधा, तो उन्होंने अभी सभ्यता की वर्णमाला भी नहीं समझी।’’ (विविध प्रसंग-2, पृ. 354) गोमांस-भक्षण के लिए केवल मुसलमानों पर आरोप लगाना ठीक नहीं क्योंकि हिंदू जनसमुदाय में भी गोमांस खाने वाले हैं, ‘‘आज कौल-कसम लिया जाए तो शायद ऐसे बहुत कम राजे-महाराजे या विदेश में शिक्षा प्राप्त करने वाले हिंदूू निकलेंगे जो गौमांस न खा चुके हो। और उनमें से कितने ही आज हमारे नेता हैं और हम उनके नामों पर जयघोष करते हैं। अछूत जातियां भी गौमांस खाती हैं और आज हम उनके उत्थान के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। (वही, पृ. 377) सबसे बड़ी चीज है इस तरह के मामले में लोकतांत्रिक रवैया अपनाना, न कि अपनी मान्यता किसी पर जबर्दस्ती थोपना, ‘‘हमें अख्तियार है, हम गऊ पूजा के लिए बाध्य कर सकें। हम ज्यादा से ज्यादा यही कर सकते हैं कि गौमांसभक्षियों की न्याय बुद्धि को स्पर्श करें।’’ (वही, पृ. 377)

प्रेमचंद ने बहुत अच्छी तरह समझ लिया था कि सांप्रदायिकता के इस उभार के पीछे धर्म की सच्ची प्रेरणा नहीं बल्कि राजनीतिक स्वार्थ काम कर रहे हैं, ‘‘दुर्भाग्य से वर्तमान समय में धर्म विश्वासों के संस्कार का साधन नहीं, राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि का साधन बना लिया गया है।’’ (वही, पृ. 355) प्रेमचंद की दृष्टि में यह धर्म नहीं, धर्म की राजनीति है; धर्म का राजनीतिक स्वार्थ के लिए उपयोग ही सांप्रदायिक उभार का सार है; इसने आकस्मिक दंगों के बजाय ऐसे राष्ट्रीय सर्वनाश का रूप ले लिया है जिसका कुफल आने वाली पीढ़ियों तक को प्रभावित करेगा। हिंदुत्व की राजनीति के दूरगामी परिणाम की ओर संकेत करते हुए उन्होंने लिखा, ‘‘इस खास मौके पर हिंदू संगठन की पुकार ने हिंदू-मुस्लिम एकता को जो ठेस पहुंचाई है उसका बुरा असर अगर दूर भी होगा तो बहुत दिनों में होगा।’’ (वही, पृ. 355).

प्रेमचंद ने लक्ष्य किया कि, ‘‘हिंदुओं में इस वक्त सहिष्णु नेताओं का अकाल है।’’ (वही, पृ. 355) और उनकी जगह शोर मचाने वाले ‘जनता की गंदी भावनाओं’ को उभाड़ने वाले सांप्रदायिक नेताओं ने ले ली है। हिंदुत्व की पताका फहरानेवाले ये कट्टरपंथी नेता अपने ही देशभाइयों- मुसलमानों के आगे जितना ही गरम थे, अंग्रेज बहादुर के आगे उतना ही नरम। 1892 में बनारस में इन लोगों ने दस हजार की एक रैली निकाली जिसमें सनातन धर्म और महारानी विक्टोरिया- दोनों की जय-जयकार के नारे लग रहे थे। 1906 में भारत धर्म महामंडल की बैठक में दरभंगा के राजा ने घोषणा की थी कि हिंदुओं के लिए निष्ठा अथवा राजभक्ति धर्म का तत्व है। यहां निष्ठा का अर्थ है गौरांग महाप्रभुओं के प्रति निष्ठा और राजभक्ति का मतलब है अंग्रेजी राज की ताबेदारी। अंग्रेजी राज राजाओं और जमींदारों के सामंती विशेषाधिकारों का सबसे बड़ा रक्षक था, फिर अंग्र्रेजी राज के प्रति निष्ठा दरभंगा नरेश की दृष्टि में धर्म का तत्व क्यों न होती! 1923 में हिंदू महासभा के बनारस अधिवेशन में प्रेमचंद ने इन राजाओं, जमींदारों और रइसों को निकट से देखा था; हिंदुत्व ब्रिटिशपरस्त सामंती वर्ग-स्वार्थ को उजागर करते हुए उन्होंने लिखा, ‘‘इस आंदोलन को शुरू करने वाले और कार्यकर्त्ता अधिकतर वह लोग हैं जो राजनीतिक मामलों में हिस्सा लेने से कावा काटते रहते हैं या उसमें हिस्सा लेते भी हैं तो आबरू बचाए हुए। वर्ना हिंदू संगठन के बनारस में आयोजित जलसे में जमींदारों और राजाओं की इतनी बड़ी संख्या न दिखाई देती। जिधर देखिए, राजे-महाराजे और सेठ-महाजन ही नजर आते थे। उनके पीछे चलने वालों में अधिकतर वह लोग थे जिनका पुश्तैनी पेशा गुलामी है, जिन्हें शुरू से ही यह शिकायत है कि मुसलमान सरकारी नौकरियां हड़प कर जाते हैं और हमारा हाल पूछने वाला कोई नहीं है, जिनके लिए एक मुसलमान सब-इन्सपेक्टर या कुर्क अमीन की नियुक्ति चीन के इंकलाब या तुर्की की फतेह से ज्यादा बड़ी घटना है।’’ (वही, पृ. 355) राजा, जमींदार, सेठ-महाजन, महंत, पुरोहित और सरकारी नौकरियों के गुलाम- यही है वह सामाजिक आधार जिसके बूते अंग्रेजी राज की छाया में हिंदू पुनरुत्थानवाद की ध्वजा फहरा रही थी।

कांग्रेस के अनेक बड़े नेता हिंदू संगठनों के संस्थापक और अग्रणी थे। ऐसी स्थिति में कांग्रेस सर्वधर्मसमभाव का मंत्रजाप करने के बावजूद हिंदुत्व के उभार को रोकने में अक्षम थी। कांग्रेस की इस भीतरी कमजोरी की ओर इशारा करते हुए प्रेमचंद ने उसी ‘कहतुर्रिजाल’ (मनुष्यता का अकाल) शीर्षक लेख में लिखा था, ‘‘अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि कांग्रेस ने भी समग्र रूप से इन आंदोलनों से अलग-अलग रहने के बावजूद व्यक्तिगत रूप से उसमें शामिल होने में कुछ भी उठा नहीं रखा। इतना ही नहीं एक भी जिम्मेदार कांग्रेस नेता ने ऐलान करके इन आंदोलनों के खिलाफ आवाज बुलंद करने का साहस नहीं किया।’’ (वही, पृ. 352) इन आंदोलनों के खिलाफ आवाज बुलंद करने की जिनसे उम्मीद की जा सकती थी, जो अपने धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक विचारों के लिए विख्यात थे वे कांग्र्रेसी नेता भी सांप्रदायिक उभार के दौर में हिंदू संगठनों और उनके नेताओं के दबाव में आ गए, ‘‘पंडित मोतीलाल नेहरू, पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाला भगवान दास, लाला श्रीप्रकाश इन आदमियों ने, जिनसे ज्यादा नैतिक साहस से काम लेने की आशा की जा सकती थी मगर इन सभी लोगों ने एक दिन अपने विरोध अपनी आशंका को व्यक्त करे दूसरे रोज उसका खंडन कर दिया और डंके की चोट पर यह कहा कि शुद्धि और संगठन के बारे में हमने जो ख्याल जाहिर किया था वह गलतफहमियों पर आधारित था। जब ऐसे ऐसे लोग दबाव में आ जाएं तो फिर इन्साफ की उम्मीद किससे की जाए।’’ (वही, पृ. 352) यह देखकर आश्चर्य होता है कि यह सब प्रेमचंद ने 1923 में लिखा था। जो इतिहासकार और चिंतक मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू की प्रगतिशीलता का अब तक गुन गाते हैं, वे देखें कि प्रेमचंद ने 1923 में ही सांप्रदायिक दबाव के आगे उनके घुटनाटेकू रवैये की कैसी तीव्र आलोचना की थी।

कांग्रेस में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता को लेकर कभी कोई सार्थक बहस नहीं हुई, सांप्रदायिकता के प्रति कभी कोई बहस नहीं हुई, सांप्रदायिकता के प्रति कभी कोई स्पष्ट और दृृढ़ नीति अख्तियार नहीं की गई और इस सबको लेकर पार्टी के भीतर और बाहर वैचारिक संघर्ष का कभी माहौल नहीं बनाया गया। मालवीय जी कांग्रेस के शिखर पुरुष बने रहे जिनका दिल कांग्रेस के साथ रहता था लेकिन दिमाग हिंदू महासभा में। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘‘वह पुराने कट्टरपंथ के समर्थक थे और हैं। सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से वह सनातन धर्म के मानने वाले हैं। हिंदुस्तानी राजे, ताल्लुकेदार तथा बड़े-बड़े जमींदार ठीक उन्हें अपना हितचिंतक मित्र समझते हैं। (मेरी कहानी, पृ. 230) इसी प्रकार लाला लाजपत राय अपनी तमाम देशभक्ति और बलिदान-भावना के बावजूद ‘‘कुछ-कुछ दक्षिण पक्ष और ज्यादा सांप्रदायिक नीति की तरफ’’ झुकाव रखते थे। (वही, पृ. 231) 1926 में केंद्रीय और प्रांतीय कौंसिलों के चुनाव के दौर में मालवीय जी और लाजपत राय ने मिलकर नेशनलिस्ट पार्टी बनाई और मोतीलाल नेहरू की स्वराज पार्टी के खिलाफ जबर्दस्त प्रचार चलाया जो सांप्रदायिक विद्वेष से भरपूर था। मोतीलाल नेहरू ने 2 दिसंबर 1926 को जवाहर लाल नेहरू (जो उस समय कमला नेहरू के इलाज के लिए स्विटरजरलैंड में थे) के नाम अपने पत्र में लिखा, ‘‘जिस प्रकार का प्रचार मालवीय-लाला गैंग मेरे विरुद्ध कर रहा वह मेरी सीमा से बाहर है। जनता में मेरी छवि हिंदू विरोधी और मुसलमान समर्थक की बना दी गई है। निजी तौर पर प्रत्येक मतदाता से कहा गया कि मैं मुस्लिम लीग में मुस्लिमों के साथ मिलकर गाय का मांस खाता हूं और सार्वजनिक स्थानों पर गौ-हत्या के औचित्य को कानूनी जामा पहनाना चाहता हूं। सांप्रदायिक नफरत फैलाना और मतदाताओं को रिश्वत देना आम बात हो गई है। बिरला के पैसे द्वारा मालवीय-लाला गैंग कांग्रेस पर कब्जा जमाने के लिए उन्मादी हो उठा है।’’ (जवाहर लाल नेहरू, कुछ पुरानी चिट्ठियां, पृ. 63) हिंदूू सांप्रदायिकता का विषधर कांग्रेस में ही दूध-लावा पा रहा था; उसे मारने के बजाय पुचकारने का परिणाम राष्ट्रीय एकता के अंत के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।

अनेक एकता सम्मेलन हुए मगर सब बेकार। एकता न होनी थी, न हुई। 30 सितंबर 1924 को प्रेमचंद ने निगम साहब को लिखा, ‘‘हिंदू मुसलिम फसादात का सिलसिला जारी है। मैंने पहले ही पेशीनगोई की थी। वह हर्फ-ब-हर्फ सही साबित हो रही है। हिंदूसभा दिल्ली में भी शायद समझौता न होने दे। लखनऊ में ज्यादती हिंदुओं की तरफ से हुई मगर बाद को किसी ने मुंह न दिखाया।’’ (कलम का सिपाही, पृ. 264) 1931 में बनारस, आगरा, मिर्जापुर और कानपुर में दंगे हुए। इनमें कानपुर का दंगा सबसे भयानक था जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी मारे गए। प्रेमचंद ने लक्ष्य किया कि असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद जो दंगे भड़के उनके पीछे धार्मिक कारण हुआ करते थे, जैसे मस्जिद के सामने बाजे बजाना या कुर्बानी, लेकिन इस समय जो दंगे हो रहे हैं उनके कारण राजनीतिक हैं। (विविध प्रसंग-2, पृ. 364) सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं के साथ मुसलमान व्यापारियों के टकराव के कारण दंगे हुए। बनारस में एक विदेशी कपड़े के व्यापारी की हत्या के कारण दंगा भड़क उठा तो कानपुर में मुसलमानों की दुकानें जबरन बंद करवाने के कारण। इसका मतलब है कि आंदोलनकारी मुसलमान व्यापारियों को अपने पक्ष में तैयार नहीं कर पाए; कांग्रेस ने आंदोलन में मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने की जी-जान से कोशिश नहीं की, ‘‘असहयोग में हमारा विश्वास है मगर हम कहने से बाज नहीं रह सकते कि कांग्रेस ने मुसलमानों को अपना सहायक बनाने की उतनी कोशिश नहीं की जितनी करनी चाहिए थी। यह हिंदू सहायता प्राप्त करके ही संतुष्ट रह गई।’’ (वही, पृ. 364) इसे पीछे कौन-सी मनोवृत्ति काम कर रही थी, इसे स्पष्ट करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं, ‘‘भारत में हिंदू बाईस करोड़ हैं। बाईस करोड़ अगर कोई काम करने का निश्चय कर लें तो उन्हें कौन रोक सकता है। हिंदुओं में इसी मनोवृत्ति ने प्रधानता प्राप्त करने की कोशिश की गई अवश्य पर बेदिली के साथ। कांग्रेस ने ऐसी संभावनाओं की ओर ध्यान नहीं दिया। यह उसी अदूरदर्शिता का परिणाम है।’’ (वही, पृ. 364) प्रेमचंद का निष्कर्ष यह है कि मुसलमानों के साथ बगैर कोई समझौता किए, बगैर उनका सहयोग लिए आंदोलन चलाना कांग्रेस की भूल थी जिसका यह भंयकर परिणाम निकला, ‘‘एक मास के अंदर काशी, मिर्जापुर, आगरा आदि स्थानों में जातिगत वैमनस्य का इतना भयंकर रूप धारण कर लेना अगर हमें कोई शिक्षा देता है तो वह यह है कि मुस्लिम भाइयों को अपने साथ न ले चलने में हमने भूल की। यह सत्य है कि हमने उनकी सहायता के लिए सदैव हाथ फैलाए रखा, सदैव उनकी सहानुभूति की याचना करते रहे, लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि बगैर आपस में कोई समझौता किए हुए सत्याग्रह आंदोलन का सूत्रपात कर देना हमारे मुस्लिम भाइयों को अप्रिय ही नहीं लगा, इसमें कुछ संदेह भी उत्पन्न किया। शायद आंदोलन की सफलता ने उन्हें और भी भयभीत कर दिया हो।’’ (वही, पृ. 363).

1923 में ही प्रेमचंद ने कांग्रेस के जिन अंतर्विरोधों का खुलासा किया था, 1931 में उन्हीं की पुनरावृत्ति बड़े पैमाने पर होती देख कर उन्होंने लिखा, ‘‘हिंदू सभा के सैकड़ों ही उपासक इस आंदोलन को इस समय कमजोर देखकर कांग्रेस में जा मिले हैं और यहां भी वही जहरीला असर फैला रहे हैं। अगर कांग्रेस में इस मनोवृत्ति को प्रोत्साहन न मिलता तो पंथगत द्वेष कभी इतना भीषण रूप धारण न करता।’’ (वही, पृ. 365) प्रेमचंद चाहते थे कि कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की नीति अख्तियार करे इसीलिए इस दिशा में जब भी कोई प्रगति होती थी; वे उसका स्वागत करते थे। उदाहरण के लिए जब मिर्जापुर कान्फ्रेन्स ने यूसुफ इमाम का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया कि कांग्रेसवालों को किसी सांप्रदायिक कार्य में प्रमुख भाग नहीं लेना चाहिए, तो प्रेमचंद ने इसकी प्रशंसा में संपादकीय टिप्पणी लिखी थी। इस प्रस्ताव का अर्थ समझाते हुुए उन्होंने लिखा था, ‘‘जहां तक शुद्ध धर्म का संबंध है, कांग्रेस वाले भी अन्य प्राणियों की भांति स्वाधीन हैं लेकिन ज्यों ही धर्म राजनीति के क्षेत्र में कदम रखे, कांग्रेसवालों को उससे नाता तोड़ लेना चाहिए।’’ (वही, पृृ. 365) यहां प्रेमचंद ने धर्म से ही नाता तोड़ लेने का आवाहन नहीं किया है, इस आवाहन में न धर्म का विरोध है न धर्म-पालन की मनाही; केवल धर्म को राजनीति के साथ मिला देने से, धर्म का राजनीतिक करने से सावधान किया गया है, ‘‘पांचों वक्त नमाज पढ़िए, तीसो रोजे रखिए, देवताओं की जितनी पूजा चाहे कीजिए, जितनी संध्या चाहे कीजिए; हवन की सुगंध से देश को सुगंधित कर दीजिए; मगर धर्म को राजनीति से गड़बड़ न कीजिए क्योंकि धर्म ईश्वर और मनुष्य के संबंध की वस्तु है।’’ (वही, पृ. 366).

जब कांग्रेस के बड़े से बड़े नेता धर्मनिरपेक्षता का मतलब केवल सर्वधर्म समभाव समझ रहे थे तब प्रेमचंद धर्मनिरपेक्षता की सच्ची रूपरेखा देश के सामने रख रहे थे- धर्म को राजनीति से गड़बड़ न कीजिए! सचमुच प्रेमचंद अपने जमाने से कई कदम आगे थे। धर्मनिरपेक्षता माने सर्वधर्म समभाव- यह हमारे देश के राजनीतिक मानस का ऐसा संस्कार बन गया है कि अनेक जनवादी, प्रगतिशील और समाजवादी नेता और चिंतक इससे एक भी कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं हैं, सच्ची धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करने की तो बात बहुत दूर है। धर्म को राजनीति से गड़बड़ न कीजिए- प्रेमचंद का यह आवाहन किसी भी समय की तुलना में आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो उठा है।

हिंदुत्व के राजनीतिक उभार के साथ-साथ जो मुस्लिम-विरोधी प्रचार की विषाक्त लहर फैल रही थी उसमें कुछ साहित्यकार भी अपना योग दे रहे थे। हिंदूू संगठन और शुद्धि आंदोलन के दौर में ही पंजाब में ‘रंगीला रसूल’ जैसी किताब निकली थी जिसने मुसलमानों के कलेजे में गुस्से की आग भड़काने का काम किया। ‘वर्तमान’ नाम के पत्र ने भी यही काम किया। प्रेमचंद की नजर इस विषैले प्रचार पर थी। उन्होंने 17 जुलाई 1933 के ‘जागरण’ में पंडित सुंदरलाल के उस भाषण का सार प्रस्तुत किया जिसमें हजरत मुहम्मद साहब और इस्लाम के विरुद्ध लगाए गए तमाम आरोपों का मुंहतोड़ जवाब था। इसी बीच उनका ध्यान चतुरसेन शास्त्री की पुस्तक ‘इस्लाम का विषवृक्ष’ की ओर गया। उन्होंने जैनेंद्र को पत्र लिखा, ‘‘…….इन चतुरसेन को क्या हो गया है कि इस्लाम का विषवृक्ष लिख डाला? उसकी एक आलोचना तुम लिखो और वह पुस्तक मेरे पास भेजो। ….इस कम्युनल प्रोपेगेन्डा का जोरों से मुकाबला करना होगा और यह ऋषभ भला आदमी भी इन चालों से धन कमाना चाहता है।’’ (कलम का सिपाही, पृ. 495) उसी दिन इसके बारे में उन्होंने बनारसी प्रसाद चतुर्वेदी को भी पत्र लिखा। अगले ही हफ्ते 24 जुलाई 1933 को ‘जागरण’ में उन्होंने ‘इस्लाम का विषवृक्ष’ की खबर ली। फिर उसकी दूसरी समीक्षा कृष्णदेव प्रसाद गौड़ से ‘हंस’ में कराई। इस किताब में कुरान के बारे में जो ऊलजलूल बातें लिखी गई थीं उनके बारे में प्रेमचंद ने लिखा, ‘‘हम नहीं समझते कि इस तरह की लचर, बेबुनियाद, धोखे में डालने वाली बातों के प्रचार का इसके सिवा और क्या उद्देश्य है कि हिंदुओं में इस्लाम के और मुसलमानों के प्रति घृणा और द्वेष पैदा किया जाए।’’ (विविध प्रसंग-2, पृ. 415) कभी स्वामी श्रद्धानंद ने अपनी एक पुस्तक में इतिहास के उदाहरण दे देकर हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी झगड़ों का इतिहास बयान किया था। प्रेमचंद ने उस पुस्तक की जिन शब्दों में आलोचना की थी (कलम का सिपाही, पृ. 343) लगभग उन्हीं शब्दों में चतुरसेन शास्त्री की वैसी ही बातों की आलोचना करते हुए प्रेमचंद ने लिखा, ‘‘धार्मिक कट्टरता से भूमंडल को जितनी यातनाएं भोगनी पड़ी हैं उनसे इतिहास के पोथे भरे पड़े हैं। इस लिहाज से क्या ईसाई, क्या बौद्ध, क्या हिंदू सभी समान रीति से अपराधी हैं। उनमें से किसी एक धर्म को छांट लेना और सारी बुराइयां उसी में दिखाना अस्वस्थ और पक्षपातपूर्ण मन का परिचय देता है।’’ (विविध प्रसंग-2, पृ. 415) समीक्षा के अंत में उन्होंने चतुरसेन शास्त्री से प्रार्थना की कि ‘‘ऐसी जटिल और द्रोहभरी रचनाएं लिखकर अपनी प्रतिभा को और हिंदी भाषा को कलंकित न करें और राष्ट्र में जो द्रोह और द्वेष पहले से फैला हुआ है, उस बारूद में आग न लगावें।’’ (वही, पृ. 416)

प्रेमचंद ने स्वाधीनता संग्राम के साहित्यिक योद्धा की हैसियत से ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उसकी समर्थक सामंती और सांप्रदायिक शक्तियों के विरुद्ध जो आजीवन संघर्ष किया वह बेमिसाल है। उन्होंने अपने कलात्मक साहित्य में इस संघर्ष को जो अभिव्यक्ति दी वह तो हमारी मूल्यवान धरोहर है ही लेकिन अपने विवेचनात्मक गद्य में, लेखों और संपादकीय टिप्पणियों के जरिए जो वैचारिक संघर्ष किया है वह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। सांप्रदायिक उभार का, विशेष रूप से हिंदुत्व के राजनीतिक उभार का, उसके वर्गीय और सामाजिक आधार का, कांग्रेस के अंतर्विरोधों का और सच्ची धर्मनिरपेक्षता का जैसा विवेचन उन्होंने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने एक ऐसे भारत का स्वप्न देखा था जिसमें धर्म बिल्कुल व्यक्तिगत मामला होगा और राजनीति में उसका कोई दखल न होगा। (वही, पृ. 374) आज अगर प्रेमचंद देखते कि स्वाधीनता के पचास वर्षों बाद उनके प्यारे भारतवर्ष में धर्म को राजनीति के साथ इतना मिलाया गया है कि आज समूचा देश हिंदू फासीवाद के गर्त के किनारे धकेल लाया गया है, तो वह एक बार तो कराह उठते लेकिन अगले ही क्षण वह इस खतरे के खिलाफ आर-पार की लड़ाई में कूद पड़ते!

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