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कविता

दंगे में चिखती आवाज!!!

इंसान की यह बस्ती नाम की
ना यहाँ कोई इंसान है और
ना इंसानियत किसी काम की
धर्म, जाति नाम पर बटें हुए हैं यहाँ पर सब
हर बात पर आ जाती है पहले मजहब!!!

बात बात पर जल उठता है
दंगे की आग यहाँ
उस गरीब बेचारे की क्या गलती
जो रहता है फुटफात फुतफाथ में
गुस्से की आग ने आज जला दिया
उस का भी आशियाना
गरीबी का मारा क्या कहेगा
बस आंसू भरा है उसके आँखों में!!!

वह बूढी माँ नजर फैलाए बैठी है
बेटे के आने की इन्तेजार में
बेटा तो मरा पड़ा हुआ है
दंगे की तलवार की धार में!!!

नयी नवेली दुल्हन आज सरमाते हुए
सज रही है अपने साजन के लिये
सजन तो सजा है गोलियों की मार से!!!

बेटी गई थी मुस्कुराते हुए आज स्कूल
शायद यहाँ पर ही हो गई उस की भूल
स्कूल के गेट पर ही नोच लिया गया उस को
जैसे भूखे कुत्ते नोच खा जाते हैं शिकार को!!!

नजाने कितने दर्द दे जाते है यहाँ दंगे
इंसान इंसान से कब तक लड़ेंगे???

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