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देश

आधुनिक समाज में आस्था के नाम पर बच्चियों का शोषण करती है ये प्रथा

समाज का घिनौना सच बयान करती एक प्रथा, जो मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में प्रचलित है। लेकिन सोचने वाली बात है, कि ये आज भी कई इलाकों में जस की तस बनी हुई है।

देवदासी प्रथा की शुरुआत छठवीं और सातवीं शताब्दी के आसपास हुई थी। इस प्रथा का प्रचलन मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में था। दक्षिण भारत में खासतौर पर चोल, चेला और पांड्याओं के शासन काल में ये घिनौनी प्रथा खूब फली फूली।

हजारों सालों से धर्म के नाम पर महिलाओं का शोषण होता आया है। देवदासी ऐसी ही एक प्रथा थी, जिसमें महिलाओं को भगवान को सौंपकर आस्था के नाम पर उनका शोषण किया जाता था। हमारे सामाजिक और धार्मिक ताने बाने की वजह से महिलाओं को मजबूरी में देवदासी बनना पड़ता था। इतिहासकारों के मुताबिक देवदासी प्रथा की शुरुआत संभवत: छठी सदी में हुई थी। अब कानूनी रूप से भले ही इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया हो, लेकिन दक्षिण भारत के तमाम मंदिरों में आज भी ऐसा हो रहा है और एक वक्त के बाद उन्हें गुजारा करने के लिए अपना जिस्म बेचना पड़ रहा है।

कौन होती हैं देवदासी?

देवदासी या देवारदियार का मतलब होता है ‘सर्वेंट ऑफ गॉड’, यानी देव की दासी। देवदासी बनने का मतलब होता था भगवान या देव की शरण में चला जाना। उन्हें भगवान की पत्नी समझा जाता था। इसके बाद वे किसी जीवित इंसान से शादी नहीं कर सकती थीं। पहले देवदासियां मंदिर में पूजा-पाठ और उसकी देखरेख के लिए होती थीं। वे नाचने गाने जैसी 64 कलाएं सीखती थीं, लेकिन बदलते वक्त के साथ-साथ उसे उपभोग की वस्तु बना दिया गया।
देवदासी प्रथा की शुरुआत छठी और सातवीं शताब्दी के आसपास हुई थी। इस प्रथा का प्रचलन मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र में बढ़ा। दक्षिण भारत में खासतौर पर चोल, चेला और पांड्याओं के शासन काल में ये प्रथा खूब फली फूली।

आधुनिक भारत में देवदासी प्रथा?

“कम उम्र में लड़कियों को देवदासी बनाने के पीछे अंधविश्वास के साथ-साथ गरीबी भी एक बड़ी वजह है। कम उम्र की लड़कियों को उनके माता-पिता ही देवदासी बनने को मजबूर करते हैं, क्योंकि ये लड़कियां ही उनकी आय का एकमात्र जरिया होती हैं।”

आज भी कई प्रदेशों में देवदासी प्रथा का चलन जारी है। हमारे आधुनिक समाज में छोटी बच्चियों को धर्म के नाम पर देवदासी बनने के लिए मजबूर किया जाता है। इतनी कम उम्र में लड़कियों को देवदासी बनाने के पीछे अंधविश्वास के साथ-साथ गरीबी भी एक बड़ी वजह है। कम उम्र की लड़कियों को उनके माता-पिता ही देवदासी बनने को मजबूर करते हैं। क्योंकि ये लड़कियां ही उनकी आय का एकमात्र जरिया होती हैं। जब लड़कियों का मासिक धर्म शुरू हो जाता है, तो उनके माता पिता लड़की को किसी जमीदार या जरूरत वाले व्यक्ति को सौंप देते हैं। वो व्यक्ति बदले में उस लड़की के परिवार की आंशिक या पूरी तरह से मदद करता है। लेकिन मदद तभी तक जारी रहती है जब तक वो लड़की से शारीरिक संबंध स्थापित करता रहता है। जो लड़कियां वर्जिन होती हैं, उनकी मांग सबसे अधिक होती है और उन्हें बाकी लड़कियों से ज्यादा पैसे दिए जाते हैं।

देवदासियों में कम उम्र में ही AIDS जैसी गंभीर बीमारी का खतरा काफी ज्यादा होता है और कई बार उन्हें गर्भ भी ठहर जाता है जिसके बाद वे चाह कर भी इस गंदगी से बाहर नहीं निकल पातीं।

जिस उम्र में लड़कियों को देवदासी बनाया जाता है उस वक्त उन्हें इसका मतलब तक पता नहीं होता है। 12-15 साल में लड़कियों का मासिक धर्म शुरू हो जाता है और 15 पूरा होने से पहले उनके साथ शारीरिक संबंध बनाना शुरू कर दिया जाता है। इतनी कम उम्र में न तो वे इस तरह के संबंधों के लिए परिपक्व होती हैं और न ही उन्हें सेक्स से संबंधित बीमारियों के बारे में पता होता है। देवदासियों में कम उम्र में ही AIDS जैसी गंभीर बीमारी का खतरा काफी ज्यादा होता है और कई बार उन्हें गर्भ भी ठहर जाता है, जिसके बाद वे चाह कर भी इस गंदगी से बाहर नहीं निकल पातीं।

जब ये देवदासियां तीस की उम्र में पहुंच जाती हैं, तो इन्हें ‘काम’ के लायक नहीं समझा जाता। फिर उनके पास शरीर को बेचने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता। फिर उन्हें सड़क और हाइवे पर चलने वाले ड्राइवरों तक से संबंध स्थापित करके अपना पेट पालना पड़ता है। जिसके एवज में उन्हें मामूली रकम मिलती है। इन ड्राइवरों से HIV का भी सबसे ज्यादा खतरा होता है।

कानून क्या कहता है?

पिछले 20 सालों से पूरे देश में इस प्रथा का प्रचलन बंद हो चुका है। कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्र प्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में लगभग 4,50,000 देवदासियां हैं।

इस प्रथा को निभाने वाले लोगों को या तो कानून के बारे में पता नहीं होता है या फिर वे जानते हुए भी इसकी परवाह नहीं करते। क्योंकि देवदासी प्रथा में शामिल लोग और इसकी खातिर सजा पाने वाले लोगों को आंकड़े में बहुत फर्क है।

आजादी के पहले और बाद भी सरकार ने देवदासी प्रथा पर पाबंदी लगाने के लिए कानून बनाए। पिछले 20 सालों से पूरे देश में इस प्रथा का प्रचलन बंद हो चुका है। कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्र प्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में लगभग 4,50,000 देवदासियां हैं। जस्टिस रघुनाथ रावकी अध्यक्षता में बने एक और कमीशन के आंकड़े के मुताबिक सिर्फ तेलंगाना और आँध्र प्रदेश में लगभग 80,000 देवदासिया हैं।

इस प्रथा को निभाने वाले लोगों को या तो कानून के बारे में पता नहीं होता है या फिर वे जानते हुए भी इसकी परवाह नहीं करते। क्योंकि देवदासी प्रथा में शामिल लोग और इसकी खातिर सजा पाने वाले लोगों को आंकड़े में बहुत फर्क है। ऐसे लोगों पर कानून का असर इसलिए भी नहीं होता क्योंकि कानून इस प्रथा को सिर्फ अपराध मानता है। जबकि ऐसा करने वाले लोग काफी पिछड़े समाज से होते हैं और उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतें भी नहीं मिल पातीं। अगर उन्हें ये सब जरूरतें मुहैया कराई जाएं और उन्हें समर्थ बनाने का प्रयास किया जाये तो स्थिति में सुधार की कल्पना की जा सकती है।

 

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