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देश

जयंत जिज्ञासु का लेख खोलता एक नये नेता का पोल

मैं मूलत: अहिंसक व्यक्ति हूं। गाँधी के सत्य और अहिंसा जैसे जीवनमूल्य मुझे बचपन से आकर्षित करते रहे हैं। झुट्ठों, लुच्चों और गुंडों से कभी नहीं बनी चाहे वो पांचवीं पास हो या पीएचडी की उपाधि हासिल किया हुआ। बहुत देर तक और बहुत दिनों तक मैं किसी से नाराज़ नहीं रह सकता,न ही किसी के लिए दुराग्रह पालना अफोर्ड कर सकता हूँ। मेरे कुछ अभिन्न मित्र बार-बार सैद्धांतिक व दलीय प्रश्न को मेरे ज़ाती मामले से जोड़ कर देख रहे हैं जो दुखद है। क्योंकि जो व्यक्ति मैं हूं ही नहीं, उस रूप में मुझे बार-बार पोर्ट्रे किया जा रहा है, इसलिए, आज कुछ प्रश्न मैं यहां नहीं चाहते हुए भी छोड़ रहा हूं:

अगर कोई व्यक्ति अशोक पांडेय जी के बाल बच्चे का शक्ति-संतुलन (मर्डर) करने की धमकी अपने गुंडे-मवालियों से सिर्फ़ इसलिए दिलवाता हो कि अशोक जी के बच्चे प्रतिभावान हैं, और कल को फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में रीढ़ तनी रख कर मैदान में खड़े रहेंगे, तो क्या तब भी वह व्यक्ति अशोक भाई की नज़र में भोलाभाला, मासूम लड़ाका बना रहेगा?

अगर कोई शख़्स सौरभ वाजपेयी जी के बच्चे का क़त्ल कराने की धमकी दिलवाये अपने उचक्के लठैत द्वारा, केवल इसीलिए कि सौरभ भाई का बच्चा तेज़तर्रार है और अपने उसूल से समझौता नहीं करेगा और उस शख्स के बहुजन विरोधी स्टैंड की आलोचना करेगा, तो क्या तब भी वह शख़्स सौरभ भाई के लिए प्रियपात्र बना रहेगा?

अगर कोई आदमी मृदुला मुखर्जी जी के बच्चे की ओर आंख उठा कर देखने और उसके साथ बर्बर व अमानवीय बर्ताव की धमकी अपने टुच्चे लठैतों से दिलवाए, तो क्या तब भी मृदुला मैम उस आदमी के लिए स्नेह लुटाती रहेंगी?

अगर, जवाब हाँ है, तो आप तीनों व्यक्ति अलौकिक हैं, हर जघन्य अपराध करने वाले को माफ़ कर देने की सदाशयता से भरे हुए इंसान हैं। मैं शायद वैसा नहीं हूं, और इसीलिए घनघोर मुख़ालफ़त की। यह कोई माने या न माने, इस क़ातिलाना प्रवृत्ति, असुरक्षा-बोध से गहरे भरे क्रांति के नायक आपके चहेते की टुच्चई, ख़ुद इसके द्वारा महिला कॉमरेडों के साथ गालीगलौज पर 4 घंटे की मीटिंग हुई, माफी मांगने पर भी तैयार हो गए,गुंडा मीटिंग में मौजूद था, जानते हुए भी नाम बताने की जिद हो रही थी, सब कुछ प्रोसिडिंग में दर्ज़ है।

और, जो लोग आज उसके लिए मुझे कोस रहे हैं, उन्हें रत्ती भर नहीं मालूम कि मुझसे ज्यादा उसके लिए आप सात जनम में नहीं कर सकते। रात-दिन उसके लिए जगा रहता था, एक सेमेस्टर लेट से एम.फिल. जमा किया, जातिवादी मैं होता तो डे फर्स्ट से ही उसका साथ नहीं देता। वह हर मोड़ पर कृतघ्न निकला, तो मेरा दोष है? मैंने ज़रूर उसे पचासों मौक़े पर साथ दिया, वो कब मेरे साथ खड़ा हुआ था? उसे संगठन के अंदर हर संभावनाशील व्यक्ति से दिक्कत थी। “एको अहं द्वितीयो नास्ति” के सिद्धांत पर रातोरात सबको कुचल कर छलांग मारने की प्रकृति से लाचार उस व्यक्ति के बारे में जब कोई मुझे नसीहत देने आता है, तो हंसी आती है।

मैंने तो यह सलाह नहीं दी थी उसे कि वाइवा-वोसे के मार्क्स को घटाने को लेकर आए रिज़ोल्युशन को टेबल ही नहीं होने दो, ओबीसी के लिए हॉस्टल एलॉटमेंट में रेज़र्वेशन के रिज़ोल्युशन को वीटो लगाकर टेबल नहीं करो। बल्कि युजीबीएम ख़त्म होने के बाद ही अपनी नाराज़गी और असहमति ज़ाहिर कर दी। उससे कहा कि आपने ख़ुद के पैर पर भी कुल्हाड़ी मारी, और एआइएसएफ को तो बर्बाद ही कर दिया इस एक स्टैंड से।

मैंने उसे कभी सलाह नहीं दी थी कि जब सारा कैंपस कंपलसरी अटैंडेंस के ख़िलाफ़ फासीवादी चरित्र के शासन-प्रशासन से लड़ रहा है तो आप जाकर सबसे पहले हाजरी लगाओ और लगातार लगाओ।

मैंने तो कभी परामर्श नहीं दिया था कि लिंगदोह कमिटी के रेकमेंडेशन पर चुनाव कराने की बात अपने भाषण में करना और लिंगदोह समेत कुछ अहम मुद्दे पर अपने कार्यकाल की आख़िरी युजीबीएम में सेहत का हवाला देकर गायब हो जाना।

मैंने तो उसे कभी नहीं कहा था कि अपनी ग़रीबी को मीडिया में बेचो, हवाई चप्पल पहनो और असामाजिक तत्वों से अकूत पैसा जमा कर गाड़ियों के लंबे काफिले में ऐश्वर्य का भोंडा प्रदर्शन कर वामपंथ की नई परिभाषा गढ़ो।

मैंने उसे कब परामर्श दिया था कि अपने ही संगठन की दलित महिला उम्मीदवार के ख़िलाफ़ भीतर ही भीतर कुचक्र रचो, भीतरघात करके माहौल ख़राब करो, उसे हरवाओ। इस पर भी एक मैराथन मीटिंग हुई।

आख़िर में, यह बताऊं कि उसके एक गुंडे ने जो मुझसे कहा, वो सुन कर मैं सन्न रह गया कि कल को खगड़िया पर आपको दाबी (दावेदारी) हो जाएगी, तो आपका शक्ति-संतुलन तो करना पड़ेगा ना! मतलब, मर्डर करा देंगे। अब कोई इस तरह खुल्लमखुल्ला धमकी दिलवाए तो उस आदमी के बारे में क्या राय बनेगी? मुझे गुस्सा नहीं आया, वितृष्णा-सी हुई कि किस आदमी के साथ खड़ा हूं, कोई इतना कैसे गिर सकता है! भाई, खगड़िया से हूँ तो जब कभी होगी, खगड़िया से ही दावेदारी होगी ना, मगर मुझे कभी कोई हड़बड़ी नहीं रही जीवन में, और न ही कभी ऐसी कोई चर्चा ही की। मतलब, बेगूसराय में भी एक ख़ास जाति का वर्चस्व, खगड़िया में भी इनके सजातीय को अपना रहनुमा मानते रहो, ये प्रवचन करता रहे और इसके अलावे सब कोई बैठ कर या तो ताली पीटे या झाल बजाए। ऐसी छिछली और उथली महत्वाकांक्षा वाले लोग जब बीपी मंडल को कोसने लगे, तो हद हो गई।

एक बार तो बोलते-बोलते यहां तक चले गए कि दलित पर भरोसा किया जा सकता है, ओबीसी पर नहीं। यह सब न सिर्फ़ तकलीफ़देह था, बल्कि एक उम्मीद की इस तरह लघुता की ओर लगातार लुढ़कने व पतन की राह पर चलने का साफ़-साफ़ लक्षण भी।

हद तो तब हो गई जब लालू प्रसाद के ख़िलाफ़ ही इनके गुंडे-उचक्के मेरे सामने लगातार अलबल बोलने लगे, और उसमें कोई रचनात्मक आलोचना कम, जातीय विद्वेष कहीं ज्यादा थी। लालू को “ललुआ” बुलाना इसके चट्टे-बट्टे का काम था, मैं टोकता रहता था, मगर ये मौनधारण किये हुए कि कहीं सजातीय लोग नाराज़ न हो जाएं, इसलिए चुपचाप सुन लिया जाए।

हर उस जगह मैंने प्रतिकार किया जहाँ अच्छा नहीं लगा और जो ख़ुद उसके हक़ में नहीं था। अंत में जब साथ चलना मुश्किल हो गया, तो मैंने अपनी राह अलग कर ली।

मतांतर के कई बिंदुओं पर जेनरल सेक्रेटरी को ख़त लिखा, जो पब्लिक डोमेन में है, और उनमें से एक भी बात का उसने जवाब नहीं दिया, न था उसके पास। एक भी बात अगर मैं ग़लत या झूठ बोल रहा हूं, तो मैं सार्वजनिक जीवन से ख़ुद को किनारा कर लूंगा।

अपने मित्रों से इतनी गुज़ारिश कि सबकी अपनी राह है, अपनी पसंद, आप अपने चहेते उम्मीदवार का प्रचार करें,  मगर मुझ पर ज़बर्दस्ती किसी भस्मासुर या “विषकुम्भम-पयोमुखम” को लादने का प्रयास न करें। बहुत सकारात्मकता के साथ जीवन जीता हूँ। उसके लिए मेरे मन में कोई दुराग्रह नहीं है, कोई मैल, कोई कलुष नहीं। पर गुंडों-मवालियों का साथ लेकर जो राह उसने पकड़ी है, वह बहुत दूर नहीं जाती। मेरे मतभेद उसूल के आधार पर थे, हैं, रहेंगे।

मैं एक सामाजिक न्यायपसंद धर्मनिरपेक्ष पार्टी का ज़िम्मेदार सदस्य हूँ, कुछ लोग लालू-विरोध की अपनी भीतरी कुंठा या विकार को मुझ पर आरोपित करने की चेष्टा न करें। इंसानियत के दायरे में विरोधी को अपना दुश्मन नहीं मानता। पर साम्यवाद की उसकी ट्रेनिंग इतनी छिछली है कि अपने ही संगठन के कॉमरेड के शक्तिसंतुलन की प्लैनिंग करता है, जातिवाद की इतनी भोथरी समझ है कि भारतीय समाज के तानेबाने की विद्रूपताओं-विसंगतियों पर पर्दा डाल कर साम्यवादी दलों के प्रसार में शुष्कता का जवाब रूस के विखंडन में ढूंढता है, जेंडर जस्टिस का ऐसा उथला प्रशिक्षण कि एक वरिष्ठ पत्रकार के प्रश्न का उत्तर यह कहते हुए देता है कि सरनेम देख कर मनचले आपको छोड़ देंगे?

बहुत गंभीरता के साथ कह रहा हूँ कि येनकेनप्रकारेण सत्ता के केंद्र में आने के लिए जिस राह पर यह चल पड़ा है, उसमें यह सूरजभान सिंह, सुनील पांडेय, मुन्ना शुक्ला, आनंद मोहन, अनंत सिंह से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है, क्यूंकि इन लोगों के बारे में तो सबको पता है। मगर यह तो प्रछन्न षड्यंत्रकारी है। यह इसलिए डेंजरस है कि जो बोलता है, ठीक उसके उलट करता है। तो आपको पता भी नहीं चल पाएगा, और यह खेल कर चुका होगा।

He has got two hands, one always at your feet and the other one always at your throat.

मैंने उसी समय से पब्लिक सनहा दे रखा है कि मुझे खरोंच भी आई, तो उसके पीछे इसी का और इसके चट्टे-बट्टे का हाथ होगा।

सिर्फ़ इतना कहना है कि जो साथी बिहार में महागठबंधन की जीत की दुआ बेगुसराय में तनवीर हसन की हार की आकांक्षा के साथ कर रहे हैं, उन्हें बिपन चंद्रा साहब को फिर से याद करना चाहिए, या वो तनवीर साहब से एक बार मिल लें। छात्र राजनीति से ही यहां तक का सफ़र उन्होंने तय किया है, बेहद ज़हीन इंसान, अहम जिन्हें छू तक न पाया।

काफी ज़िम्मेदारी है, मसरूफ़ियत भी, इसलिए किसी प्रतिक्रिया का जवाब फिलहाल नहीं दे पाऊंगा। उम्मीद है,  इतने से आप मेरा पक्ष व मेरी अपील समझ जाएंगे।

आपका ही,
जयन्त

(नोट: इस पोस्ट को महज उपर्युक्त तीन मित्रों/व्यक्तियों को संबोधित न समझा जाए। वो तीनों मेरे लिए बेहद आत्मीय हैं। यह पोस्ट कुछ बातों को लेकर इस मंच पर मौजूद सभी मित्रों को थोड़ा अवगत व स्पष्ट करने के लिए है।)

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