उत्तर प्रदेश से मुगलसराय की भाजपा विधायक साधना सिंह ने सपा-बसपा गठबंधन को लेकर मायावती पर निशाना साधते हुए बेहद विवादित टिप्प्णी की थी कि जिस महिला का साड़ी, ब्लाउज और पेटीकोट फट जाता है, वो महिला फिर सत्ता के लिए आगे नहीं आती है। जो महिला फिर भी आगे आती है तो वो देश के लिए कलंक है। उन्होंने आगे कहा कि मायावती को उन्हें महिला कहने में शर्म आती है क्योंकि वो किन्नर से भी बदतर हैं। इस टिप्पणी की स्वाभाविक तौर पर आलोचना होनी ही थी। बसपा, सपा जैसे राजनैतिक दलों के अलावा समाज के संवेदनशील तबके ने भी इस बयान की निंदा की।
एनडीए में भाजपा के सहयोगी रामदास अठावले ने भी साधना सिंह की टिप्पणी की आलोचना करते हुए कहा कि अगर ऐसा बयान उनकी पार्टी के किसी व्यक्ति ने दिया होता, तो वे उस पर कार्रवाई करते। ज़ाहिर है वे भाजपा से ये उम्मीद रख रहे थे कि वह साधना सिंह पर कोई कार्रवाई करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अलबत्ता राष्ट्रीय महिला आयोग ने साधना सिंह को नोटिस जारी किया है। यह मामला और तूल पकड़ता या इससे कोई नुकसान आम चुनावों में होता, उससे पहले ही साधना सिंह की माफ़ी भी सामने आ गई है। उन्होंने कहा कि विगत मेरे द्वारा दिए गए भाषण के दौरान मेरी मंशा किसी को अपमानित करने की नहीं थी।
बल्कि मेरी मंशा सिर्फ और सिर्फ़ दो जून, 1995 को गेस्ट हाउस कांड में भाजपा द्वारा की गई मदद याद दिलाने की थी न कि उनका अपमान करने की। अगर मेरे शब्दों से किसी को ठेस पहुंची है, तो मैं खेद प्रकट करती हूं। इस माफ़ीनामे के बाद भाजपा यही चाहेगी कि मामला आया-गया मान लिया जाए। लेकिन राजनीति में, या किसी भी क्षेत्र में महिलाओं के लिए सम्मान कायम रखना है, तो मामले को माफ़ीनामे के बाद ख़त्म नहीं होने देना चाहिए। ज़ख्म़ पर मलहम लगाना ठीक है, लेकिन आदर्श स्थिति तो वही है जब ज़ख्म़ लगने की ज़रा सी भी गुंजाइश बाकी न रहने दी जाए।
सच्चाई दरअसल यह है कि लैंगिक समानता जैसे शब्द केवल किताबों और भाषणों का हिस्सा बनकर रह गए हैं, रोजमर्रा के व्यवहार में उसके लिए स्थान है ही नहीं और इसी का दुष्परिणाम है कि महिलाओं पर ऐसी ओछी टिप्पणियां की जाती हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि टिप्पणी कोई महिला कर रही है या पुरुष, क्योंकि दोनों इसी समाज का हिस्सा हैं और उसकी रूढ़िवादी मानसिकता से प्रेरित हैं। जिसमें महिला को श्रृंगार, सौंदर्य, शर्म, लज्जा के संकुचित दायरे में बांधकर उससे उसके इंसान होने के अधिकार को ही छीनने की कोशिश की जाती है।
साधना सिंह का बयान राजनैतिकविरोधी होने के नाते मायावती के साथ घटी एक बेहद दुखद घटना को लेकर था, लेकिन इससे उन्होंने उन बलात्कार पीड़ित महिलाओं के संघर्ष को भी कमजोर कर दिया, जो शारीरिक और मानसिक पीड़ा के बावजूद मरने की जगह जीने के लिए संघर्ष करती हैं। अपने बयान से उन्होंने किन्नरों का भी अपमान किया है। शारीरिक संरचना के कारण अगर कोई महिला या पुरुष न होकर किन्नर होता है, तो क्या इसका अर्थ यह है कि वह सामान्य इंसान नहीं है? आखिर दिल-दिमाग तो उसमें भी बाकी इंसानों की तरह है, फिर बदतरी का पैमाना उन्हें क्यों बनाया जाता है?
मायावती पर टिप्पणी का एक पहलू यह भी है कि वे दलित हैं और इस नाते कट्टटरपंथी सवर्ण समाज उन्हें अपमानित करना अपना हक मान लेता है। उन पर पहले भी कई अशोभनीय टिप्पणियां हो चुकी हैं। यह उनकी मानसिक मजबूती और दृढ़ इच्छाशक्ति ही है कि वे सारे अपमानों का सामना करते हुए भी आगे बढ़ती रहीं हैं। और भारतीय राजनीति का यह बेहद दुखद पहलू है कि यहां केवल मायावती नहीं बल्कि इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, जयललिता, ममता बनर्जी जैसी कई अग्रणी महिलाओं के लिए निम्न स्तर के शब्दों, टिप्पणियों या व्यवहार का इस्तेमाल होता रहा है। इनकी राजनैतिक विचारधारा या कार्यशैली की जगह व्यक्तिगत जीवन को लेकर हमले किए जाते रहे हैं। यह सब देखकर ऐसा लगता है मानो भारतीय समाज वास्तविक लैंगिंक समानता लाना ही नहीं चाहता। महिलाओं के मामले में आज भी मध्ययुग की मानसिकता को ढोया जाता है। जैसे रज़िया सुल्ताना के लिए कहा जाता है कि उनमें तमाम गुण थे, सिवाए एक के, कि वह एक औरत थीं। हालात आज भी वैसे ही हैं।
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